न्यायिक सक्रियता क्या है (nyayik sakriyata kya hai)-
न्यायिक सक्रियता से आशय नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अथवा समाज में न्याय को बढ़ावा देने के लिए न्यायालय द्वारा आगे बढ़कर भूमिका लेने से है अर्थात न्यायपालिका द्वारा सरकार के अन्य 2 अंगों को अपने संवैधानिक दायित्वों का पालन के लिए बाध्य करना ही न्यायिक सक्रियता है!
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) की अवधारणा अमेरिका में पैदा हुई और विकसित हुई! भारत में न्यायिक सक्रियता का सिद्धांत 1970 के दशक के मध्य में आया! न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती, न्यायमूर्ति चिनप्पा रेड्डी तथा न्यायमूर्ति डी.ए.देसाई ने देश में न्यायिक सक्रियता (judicial activism) की नींव रखी
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में न्याय को एक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है, जिसके अंतर्गत सामाजिक,आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय आते हैं! राज्य के नीति में सामाजिक-आर्थिक न्याय उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य माना गया है परंतु स्वतंत्रता के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी राज्य द्वारा आम जनता को न्याय उपलब्ध नहीं कराया जा सका
न्यायालय ने अनुभव किया कि अगर विधायिका और कार्यपालिका सामाजिक न्याय का वादा पूरा करने में असमर्थ है या अनिच्छुक है, तो न्याय का संरक्षक होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय का यह कर्तव्य बनता है कि इन दोनों को उनके उत्तरदायित्व वाहन करने हेतु प्रेरित करें!
न्यायिक सक्रियता के कारण (nyayik sakriyata ke karan in hindi) –
न्यायिक सक्रियता के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं –
(1) नागरिक अपने अधिकारों एवं आजादी के लिए न्यायपालिका की ओर देखते हैं परिणामतः न्यायपालिका पर पीड़ित जनता को आगे बढ़कर मदद पहुंचाने का भारी दबाव बनता है!
(2) भारत का संविधान में स्वयं ऐसे कुछ प्रावधान है जिनमें न्यायपालिका को विधायन यानि कानून बनाने की गुंजाइश है, यह एक सक्रिय भूमिका निभाने का मौका देता है!
(3) जब विधायिका आपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने में विफल हो गई हो!
(4) कभी-कभी न्यायालय जाने-अनजाने में स्वयं मानवीय प्रवृत्तियों, लोकलुभावनवाद, प्रचार,मीडिया की सुर्खियां बटोरने आदि का शिकार हो जाता है!
(5) उत्तरदाई सरकार उस समय लगभग ध्वस्त हो जाती है जब सरकार के साथ खाएं विधायक एवं कार्यपालिका अपने अपने कार्यों का निष्पादन नहीं कर पाती! परिणामस्वरूप संविधान तथा लोकतंत्र में नागरिकों का भरोसा उठ जाता है!
(6) न्यायिक उत्साह अर्थात न्यायाधीश भी बदलते समय के समाज सुधार में भागीदार बनना चाहते हैं! इसके जनहित याचिकाओं का हस्तक्षेप का अधिकार कथा प्रोत्साहन मिलता है!
(7) विधायी निर्वात, अर्थात ऐसे कई क्षेत्र हो सकते हैं जहां विधानों का अभाव है! इसलिए न्यायालय पर जिम्मेदारी आ जाती है वह परिवर्तित सामाजिक जरूरतों के अनुसार न्यायालय विधान का कार्य करें!
न्यायिक सक्रियता के उदाहरण (nyayik sakriyata ka udaharan) –
प्रसिद्ध केशवानंद भारतीय मामला (1973) एक न्यायिक सक्रियता का उदाहरण है! मेनका गांधी मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय का निर्णय भी न्यायिक सक्रियता का उदाहरण हैं! इसके अलावा गोलकनाथ मामला (1967), विशाखा मामला (1997) आदि भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय न्यायिक सक्रियता के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
न्यायिक सक्रियता के लाभ (nyayik sakriyata ke labh) –
(1) न्यायिक सक्रियता के कारण साधनविहीन, गरीब तथा आमजन के लिए न्याय सर्वसुलभ हो पाया!
(2) लोक कल्याणकारी राज्य के सपने को वास्तविकता का आधार प्रदान करने में न्यायिक सक्रियता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है!
(3) न्यायिक सक्रियता के कारण लोगों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ा है, लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास तथा सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत न्याय के स्थान पर सामाजिक न्याय निर्णय का विकास हुआ है!
(4) न्यायिक सक्रियता से विधायिका और कार्यपालिका के उत्तरदायित्व तथा जवाबदेहीता में वृद्धि हुई है!
न्यायिक सक्रियता के दोष या आलोचना (nyayik sakriyata ke dosh ya aalochana in hindi) –
न्यायिक सक्रियता के दोष इस प्रकार हैं –
(1) तीनों अंगों के बीच संतुलन संविधान का मूल ढांचा है! न्यायपालिका कार्यपालिका में हस्तक्षेप शासन के तीनों अंगों के भी संतुलन को समाप्त कर देता है, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग के स्थान पर निरंतर टकराव हो गया विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है!
(2) अधिकारिता के नियम को अत्यधिक शिथिल करने के कारण न्यायपालिका पर मुकदमा का भार बढ़ जाता है!
(3) न्यायपालिका का जनहितवाद के नाम पर नीति-विषयक तथा साधारण प्रकार के प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई उचित प्रतीत नहीं होता है! यदि इस तरह न्यायालय छोटे-छोटे मामलों में हस्तक्षेप करती रही, तो जल्द ही उसके निर्देशों का महत्व समाप्त हो जाएगा!
(4) कई बार न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता (judicial activism) के नाम पर निर्णय तो दे देती है किंतु वह इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकती कि इस निर्णय को कार्यान्वित करने में क्या व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती है!
निसंदेह रूप से न्यायिक सक्रियता (judicial activism) के विरुद्ध आवाज उठाई गई आपत्तियों कोई हद तक सत्य है, किंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जनहितवाद प्रणाली ने सामाजिक न्याय स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है!
समाज के वह लोग जो निर्धनता,अशिक्षा, अज्ञानता व पिछडेपन के कारण अन्याय का शिकार थे, उन्हें जनहित याचिका के माध्यम से न्याय प्राप्त हो सका! यहां उल्लेखनीय के नीति निदेशक सिद्धांतों जो न्याय योग्य नहीं है, उन्हें जनहितवाद के माध्यम से ही न्यायपालिका ने लागू करने का प्रयास किया! किंतु न्यायपालिका की अतिसक्रियता के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं! अतः इस संदर्भ में न्यायपालिका को संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए!
इन्है भी पढें –
भारतीय संविधान और संविधान सभा की आलोचना के कारण बताइए
भारतीय संविधान की विशेषताएं बताइए
भारतीय संविधान के विभिन्न स्त्रोत
राज्य महाधिवक्ता (Advocate General in hindi)
संप्रभुता क्या है? संप्रभुता का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, लक्षण
Attorney General of India in hindi
Thanks for the good article, I hope you continue to work as well.
Nice explanation
Thank you so much❤❤.
stay connected