जलवायु क्या है (jalvayu kya hai) –
किसी विस्तृत क्षेत्र में वर्ष की विभिन्न ऋतुओं की औसत मौसम दशाओं को उस क्षेत्र की जलवायु कहते हैं। औसत मौसम दिशाओं की जानकारी एक बड़े क्षेत्र के संदर्भ में लंबी अवधि (सामान्यता 35) वर्ष के लिए एकत्रित किए गए आंकड़ों की गणना के आधार पर की जाती है!
उदाहरण – राजस्थान की जलवायु शुष्क एवं गर्म है, केरल की जलवायु उष्ण कटिबंधीय वर्षा वाली है, ग्रीनलैंड की शीत जलवायु है तथा मध्य एशिया के जलवायु शीतोष्ण महाद्वीपीय है। किसी प्रदेश की जलवायु, अपेक्षाकृत स्थायी होती है। उदाहरणतया भारत की जलवायु समुच्चय तौर पर मानसूनी है।
जलवायु विज्ञान की परिभाषाा (jalvayu vigyan ki paribhasha):
जलवायु विज्ञान भौतिक भूगोल की वह शाखा है जिसके अंतर्गत संपूर्ण पृथ्वी अथवा किसी स्थान विशेष की जलवायु का अध्ययन किया जाता है। यह मानव जीवन एवं पारितंत्र पर जलवायु के प्रभाव का अध्ययन भी करता है।
विश्व के विभिन्न विभागों के जलवायु का अध्ययन जलवायु का निर्णय मौसम विज्ञान घटक के किसी एक ही तत्व के बहुवार्षिक औसत से नहीं होता, वरन् कई महत्वपूर्ण तत्व जैसे दाब, ताप, वर्षा, आर्द्रता, बादल, वायु और धूप आदि के सामान्य मानो के संयोजन से होता है।
जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक (jalvayu ko prabhavit karne wale karak) –
किसी स्थान या प्रदेश की जलवायु को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं-
(1) अक्षांश अथवा विषुवत वृत से दूरी –
विषुवत वृत्त के निकटवर्ती स्थान, दूरस्थ स्थानों की अपेक्षा अधिक गर्म होते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि विषुवत वृत्त पर सूर्य की किरणें हमेशा लगभग लंम्बवत पड़ती है। शीतोष्ण और धुव्रीय कटिबंध में सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती है। किसी भी क्षेत्र में लंम्बवत की अपेक्षा अधिक सकेन्द्रिक होती है।
इसके अतिरिक्त तिरछी किरणों की अपेक्षा लंबवत किरणों को धरातल तक पहुंचने में वायुमंडल की कम दूरी तय करनी पड़ती है। यही कारण है कि निम्न अक्षांश में उच्च अक्षांश की अपेक्षा तापमान ऊंचा रहता है। उदाहरण-विषुवत वृत्त के निकट होने के कारण मलेशिया में इंग्लैंड (विषुवत वृत्त से दूर) की अपेक्षा अधिक गर्मी पड़ती है।
(2) समुद्र तल से ऊंचाई –
पर्वतों पर मैदानों की अपेक्षा अधिक ठंड रहती है। शिमला अधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण ही जालंधर की अपेक्षा अधिक ठंडा है यद्यपि दोनों नगर एक ही अक्षांश पर स्थित है। तापमान ऊंचाई बढ़ने के साथ घटता जाता है। प्रत्येक 165 मीटर ऊंचाई पर औसतन 1° सेल्सियस तापमान कम होता जाता है। इस प्रकार ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान निरंतर कम होता रहता है।
(3) महाद्वीपीयता अथवा समुद्र से दूरी –
पानी गर्मी का कुचालक है अर्थात यह बहुत देर में गर्म होता है और बहुत देर में ठंडा होता है। समुद्र के इस समकारी प्रभाव के कारण तट के निकट के स्थानों का ताप परिसर कम और आर्द्रता अधिक होती है। महाद्वीपों के आंतरिक भाग समुद्र के इस समकारी प्रभाव से वंचित रहते हैं
अतः वहां का ताप परिसर अधिक और आर्द्रता कम होती है उदाहरणार्थ मुंबई और नागपुर दोनों लगभग एक ही अक्षांश पर स्थित है, परंतु समुद्र के प्रभाव के कारण मुंबई में नागपुर की अपेक्षा तापमान नीचे रहता है और अधिक वर्षा होती है।
(4) प्रचलित पवनों का स्वरूप –
समुद्री की ओर से आने वाली पवनें (अभितट पवनें) नमी से युक्त होती है और वे अपने मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों में वर्षा करती है। महाद्वीपों के आंतरिक भागों से समुद्र की ओर आने वाली, पवनें (अपतट पवनें) शुष्क होती है और वे वाष्पीकरण में सहायक होती है। भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून पवने समुद्र से आती है। अतः देश के अधिकांश क्षेत्र पर वर्षा करती है। इसके विपरीत शीतकालीन मानसून पहुंचने स्थल भाग से आने के कारण सामान्यत शुष्क होती है
(5) मेघाच्छादन –
मेघ विहीन मरुस्थलीय भागों में दिन के समय वायु के अत्यधिक गर्म होने के कारण छाया में भी उच्च तापमान पाए जाते हैं। रात के समय यह गर्मी धरातल द्वारा शीघ्र वितरित हो जाती है अतः मरुस्थलो में दैनिक ताप परिसर अधिक होता है। इसके विपरीत बादलों से घिरे आकाश और भारी वर्षा के कारण तिरुवंतपुरम में ताप परिसर बहुत कम होता है।
(6) समुद्री धाराएं –
समुद्री जल में तापमान और घनत्व की समानता बनाए रखने में समुद्र का जल एक स्थान से दूसरे स्थान को गतिमान रहता है। समुद्री धाराएं जल की गतियां है जो उच्च तापमान से निम्न तापमान तथा निम्न तापमान से उच्च तापमान की ओर एक निश्चित दिशा में बहती है। गर्म धाराएं तटवर्ती भागों के तापमान को बढ़ाकर कभी-कभी वर्षा में सहायक होती है (जबकि ठंडी समुद्री धाराएं तटवर्ती भागों का तापमान कम कर, कोहरा उत्पन्न करती है)।
(7) पर्वत मालाओं की स्थिति –
पर्वत मालाएं हवाओं के रास्ते में प्राकृतिक अवरोध का कार्य करती है। समुद्र की ओर से आने वाली पवनें मार्ग में पर्वत के आने पर ऊपर चढ़ने को बाध्य होती है ऊपर चढ़ने पर तापमान गिरने लगता है और ये पवनाभिमुख ढाल वर्षा रहित होता है तथा वृष्टि छाया प्रदेश कहां जाता है।
महान हिमालय वाष्पयुक्त मानसूनी पवनों को तिब्बत जाने में रुकावट पैदा करते हैं और उत्तर की ओर से आने वाली ठंडी हवाओं को भारत में आने से रोकते हैं। इसी कारण से भारत के उत्तरी मैदानों में भारी वर्षा होती है जबकि तिब्बत, एक स्थाई वृष्टि छाया प्रदेश बना हुआ है ।
मौसम तथा जलवायु के तत्व:
मौसम और जलवायु के प्रमुख तत्व तापमान, वायुदाब, पवन,आर्द्रता, वर्षण आदि है इनका वर्णन निम्नानुसार है।
(1) तापमान –
वायुमंडल में संबंध ऊष्मा या ठंड की मात्रा को तापमान कहते हैं। वायुमंडल सूर्यताप तथा पार्थिव विकिरण द्वारा गर्म होता है जिससे उसका तापमान बढ़ता है।किसी स्थान का तापमान कई कारकों पर निर्भर करता है जिसमें भूमध्य रेखा से दूरी, समुद्र तल से ऊंचाई, समुद्री तट से दूरी, समुद्री धाराएं, प्रचलित पवनें भूमि का ढाल तथा मेघ एवं वर्षा प्रमुख हैं।
सामान्यतः तापमान भूमध्य रेखा से ध्रुवों की और कम होता है। समुद्र से ऊंचाई में वृद्धि होने पर तापमान में कमी आती है। गर्म धाराएं तथा पवनें तापमान को पढ़ाती है जबकि ठंडी पवने तापमान को कम करती है। तापमान में दैनिक तथा वार्षिक परिवर्तन होते रहते हैं। दैनिक परिवर्तन मौसम से संबंधित है जबकि वार्षिक परिवर्तन का संबंध जलवायु से है।
(2) वायुदाब –
वायुमंडल की वायु में भार होता है जिससे वायुदाब उत्पन्न होता है समुद्र तल पर सामान्यता परिस्थितियों में वायु का दाब 76 सेंटीमीटर अथवा 1013.25 मिलीबार होता है। किसी स्थान के वायुदाब में तापमान, जलवाष्प, समुद्र तल से ऊंचाई आदि कारकों के अनुसार परिवर्तन होता रहता है।
दो स्थानों के बीच वायुदाब में अंतर होने से वायु उच्च वायुदाब वाले क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की और पवनों के रूप में प्रवाहित होती है इस प्रकार वायुदाब मौसम तथा जलवायु को प्रभावित करता है।
(3) पवन –
जब वायु एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर चलती है तो यह पवन कहलाती है। पवन वायुदाब के वितरण पर निर्भर करती है। यह सदा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब वाले क्षेत्र की ओर चलती है। विश्व की प्रचलित पवनें पृथ्वी पर वायुदाब पेटियों की स्थिति के अनुसार ही चलती है व्यापारिक पवनें, पछुआ पवनें, मानसून पवनें आदि इसके मुख्य उदाहरण है।
(4) आर्द्रता तथा वृष्टि –
पृथ्वी के जलीय मार्गो से सदा वाष्पीकरण होता रहता है जिससे वायुमंडल में आर्द्रता बढ़ती है। वायुमंडल की आर्द्रता का होना अति आवश्यक है। वायुमंडल में उपस्थित जल वाष्प का अनुकूल परिस्थितियों में संघनन हो जाता है जिससे वृष्टि होती है। हिमवृष्टि,ओलावृष्टि तथा जलवृष्टि आदि वृष्टि के प्रमुख स्वरूप है।