चैम्बरलिन की ग्रहाणु परिकल्पना क्या है? इसका मूल्यांकन कीजिए

चैम्बरलिन की ग्रहाणु परिकल्पना क्या है (chamberlain ki grahanu parikalpana) –

‘निहारिका परिकल्पना के विपरीत चैम्बरलिन ने सन् 1905 ई० में पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपनी ‘ग्रहाणु परिकल्पना ‘ प्रस्तुत की। ग्रहाणु परिकल्पना द्वारा न केवल पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है वरन् उसकी बनावट, वायुमण्डल की उत्पत्ति तथा महासागरों एवं महाद्वीपों की रचना के विषय में भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।

निहारिका परिकल्पना‘ के विपरीत चैम्बरलिन का विचार था कि पृथ्वी की रचना केवल उस एक निहारिका से नहीं हुई जिसका अवशिष्ट भाग सूर्य बना वरन् इसकी उत्पत्ति दो बड़े तारों के सहयोग से हुई है। चैम्बरलिन के अनुसार प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड में दो विशाल तारे थे। एक सूर्य था तथा दूसरा उसका साथी विशाल तारा। ग्रह निर्माण के पूर्व, सूर्य तप्त एवं गैसपूर्ण नहीं था वरन् ठोस कणों से निर्मित चक्राकार एवं शीतल था। 

ब्रह्माण्ड में घूमते हुए इस सूर्य तारा के पास एक विशालकाय तारा पहुँच गया। इस प्रकार पास आते हुए तारे की आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य के धरातल से असंख्य छोटे-छोटे कण बाहर अलग हो गये। प्रारम्भ में मौलिक अवस्था में ये कण धूलि कण के रूप में थे। इन बिखरे हुए कणों को ‘ग्रहाणु’ अथवा ‘प्लानेटिसिमल’ (planete- simals) कहा जाता है। 

ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए ग्रहाणुओं में कुछ ग्रहाणु अपेक्षाकृत बड़े आकार वाले थे। यही (कुछ) बड़े ग्रहाणु भावी ग्रहों के निर्माण के लिए केन्द्र भाग बने। इस प्रकार बड़े ग्रहाणुओं के चारों तरफ के छोटे-छोटे ग्रहाणुओं ने उनसे मिलकर बृहद रूप धारण करना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप असंख्य ग्रहाणुओं ने सम्मिलित होकर (कुछ) वृहद् आकार में परिवर्तित होकर ग्रहों का रूप धारण किया। 

इस परिकल्पना के अनुसार सूर्य के धरातल के कणों के अलगाव का मुख्य कारण पास आने वाले तारे की ज्वारीय शक्ति को ही बताया जाता है। यह सोचना आवश्यक नहीं कि पृथ्वी पूर्णरूपेण कभी भी तरलावस्था में रही होगी। पृथ्वी की रचना सर्वप्रथम ग्रहाणु केन्द्र से प्रारम्भ होकर निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होती गयी। 

प्रारम्भ में निर्माण केन्द्र (नाभिक) अधिक घनत्ववाला तथा ठोस था तथा यह ग्रहाणुओं के आपसी आकर्षण द्वारा समूहन से बना था। ज्यों-ज्यों अन्य ग्रहाणु इससे जुटते गये, पृथ्वी का आकार आरम्भ में तीव्र गति से तथा बाद मन्द गति से बढ़ता गया तथा एक निश्चित समय में पृथ्वी ने अपना वर्तमान रूप प्राप्त कर लिया। मूल पिण्ड अथवा मौलिक सूर्य तारा का अवशिष्ट भाग वर्तमान सूर्य बन गया।

चैम्बरलिन की ग्रहाणु परिकल्पना का मूल्यांकन (Chamberlain ki grahanu parikalpana ka mulyankan) –

चैम्बरलिन ने अपनी ‘ग्रहाणु परिकल्पना’ द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति, उसकी संरचना, महासागरों तथा महाद्वीपों की उत्पत्ति तथा पर्वतों के निर्माण की समस्या को सुलझाने का भरसक प्रयत्न किया है। कुछ हद तक इस परिकल्पना से पृथ्वी के स्वभाव का आभास मिलता है, पर कुल मिलाकर यह विचारधारा किसी भी समस्या को पूर्णरूपेण हल करने में असमर्थ है।

(1) इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों का निर्माण अलग- अलग स्वतन्त्र रूप में हुआ है। इस प्रकार ग्रहों को एक | नियमानुसार परिभ्रमण नहीं करना चाहिए। परन्तु इसके विपरीत सभी ग्रह एक निश्चित दिशा में सूर्य के चारों ओर घूमते हैं।

(2) एक छोटी सी कुण्डलाकार निहारिका (spiral ( nebula) से सम्पूर्ण सौर्य मण्डल की रचना कल्पना मात्र ही जान पड़ती है।

(3) यदि ग्रहों की रचना ग्रहाणुओं के संवर्धन से हुई मान ली जाय तो भी ग्रहों में उतना ही कोणीय आवेग नहीं हो सकता जितना कि इस समय उनमें है। 

(4) ग्रहाणुओं के संवर्धन एवं समूहन की क्रिया पूर्ण रूप से वर्णित नहीं की गयी है। समूहन द्वारा क्यों नौ ही ग्रह बने? अधिक अथवा कम ग्रह क्यों नहीं बनें?

(5) इस परिकल्पना के अनुसार ग्रह सदैव ठोस थे परन्तु पृथ्वी प्रारम्भ काल में तरलावस्था में थी।

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