जल निकास क्या है (jal nikas kya hai) –
खेतों से जल को निकालने या जल निकास की बेहतर व्यवस्था करने हेतु कई प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है, जिन्हें जल निकास प्रणाली या जल निकास विधि कहा जाता है!
जल निकास की विधियां (jal nikas ki vidhiyan) –
जल की निकास की विधियां दो प्रकार की हैं –
(A) पृष्टीय जल निकास!
(B) भूमिगत जल निकास!
(A) पृष्टीय जल निकास –
इस विधि के अंतर्गत भूमि की ऊपरी सतह से खुली नालियों द्वारा जल निकास किया जाता है! जल निकास की खुली नालियों काफी सुविधाजनक होती है और इनका निर्माण भी भारतीय कृषकों के लिए अतिसरल है! इसकी मुख्य विधियां इस प्रकार है –
(1) अस्थायी नालियां –
इस विधि के अंदर खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर 10 से 15 सेंटीमीटर गहरी नालियां बना देते हैं एवं ये नालियां मुख्य नाली में मिला देते हैं! इस प्रकार की नालियां आवश्यकतानुसार नष्ट भी कर देते हैं! इसके अतिरिक्त अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में 1-2 मीटर चौड़ी एवं 0.3 से 1.0 मीटर धरातल से उठी हुई क्यारियों बनाते हैं! इन क्यारियों में बीचो-बीच नालियां छोड़ देते हैं! धरातल से उठी क्यारियों में फसल पैदा करते हैं!
(2) कटआउट नालियां –
जिन क्षेत्रों में नहर खेतों के धरातल से ऊपर रहती है, वहां पर निस्पंदन की क्रिया द्वारा नहर का जल नहर के किनारे वाले क्षेत्रों में एकत्रित होता रहता है! यह समस्या कहीं-कहीं पर तालाबों के कारण भी उत्पन्न हो सकती है! इस प्रकार की समस्याओं से बचने के लिए नहर एवं खेत के बीच 1.0 से 1.5 मीटर चौड़ी एवं 0.8 से 1.0 मीटर गहरी नालियां खोद देते हैं! इन नालियों का संबंध में निचले नालों से करके जल निकास करते हैं!
(3) स्थायी नलियां –
जिन क्षेत्रों में जल निकासी की समस्या अधिक होती है, वहां पर क्षेत्र के निचले स्थान पर स्थाई मुख्य नाली एवं इनकी सहायक नालियां, जो कि स्थाई होती है, बनाई जाती है! सहायक नदियां मुख्य नाली में पानी इकट्ठा करती है व मुख्य नाली इस पानी को नालों या नदियों में छोड़ देती है!
(2) भूस्तरीय जल निकास –
(1) टाइल ड्रेन्स –
इसके अंदर 10 सेमी व्यास वाले मिट्टी के टाइल जो कि छिद्रयुक्त होते हैं, उचित गहराई पर दबा देते हैं! सहायक नलियों के बीच की दूरी 45 से 75 सेंटीमीटर के बीच रखते हैं!
(2) पाइप ड्रेन्स –
इसके अंदर 10 सेमी व्यास छिद्रयुक्त लोहे या प्लास्टिक के नल सहायक नलियों में दबा देते हैं जिसका संबंध मुख्य नाली से कर देते हैं!
(3) स्टोन ड्रेन्स –
जिन क्षेत्रों में सहायक नाली पत्थर या ईटों की सहायता से बनाई जाती है वहां पर भी सहायक नालियों के बीच 4.5 से 10.0 मीटर तक रखते हैं! ये नालियां चोकर या V आकार की भी बनाते हैं! इन नालियों के अंदर के टुकड़े, बांस के टुकड़े या पत्तियाँ आदि भर देते हैं और ऊपर से मिट्टी डाल देते हैं और इसका संबंध मुख्य नालियों से कर दिया जाता है!
(4) पोल ड्रेन्स –
जिन खेतों में लकड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है उन क्षेत्रों में जल की निकास के लिए नालियां लकड़ी के टुकड़ों से बनाते हैं इन नदियों का आकार 80 से 90 से मी थोड़ा रखा जाता है इन नालियों के बगल में लकड़ियों के टुकड़े कर दिए जाते हैं पानी रे सिर्फ पर सहायक नदियों से होता हुआ मुख्य जल निकासी नाली तक पहुंच जाता है लकड़ी के टुकड़े के कारण घर जाते हैं नदियों में मिट्टी भर जाती है तो बार बार होती है
जल निकास के लाभ (jal nikas ke labh) –
(1) हानिकारक लवण भूमि की ऊपरी सतह पर एकत्रित नहीं हो पाते हैं!
(2) भूमि का वायु संचार बढ़ता है फलस्वरुप भूमि में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है!
(3) जल द्वारा मृदा का कटाव कम हो जाता है तथा मृदा संचार में सुधार होता हैं!
(4) जल निकासी की उपयोगिता सुविधा होने पर पौधों के खाद्य तत्वों का भूमि में निक्षालन कम होता है!
(5) अच्छे जल निकास से फसलों को विभिन्न रोगों एवं कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता है!
जल निकास की हानियाँ (jal nikas ki haniya)-
(1) पानी की अधिकता के कारण भूमि के पोषक तत्व निक्षालन द्वारा नष्ट हो जाते हैं तथा पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है!
(2) खेतों में पानी अधिक समय तक बने रहने के कारण अगली फसल की बुआई में देरी होती है और उपज में कमी आती है!
(3) भूमि सतह पर अधिक पानी इकट्ठा होने से एवं जल निकास प्रबंध के न होने की वजह से भूमि दलदली हो सकती है!
(4) उपयुक्त जल न होने की वजह से भूमि की ऊपरी सतह में एकत्रित लवण, पौधों की वृद्धि पर विषैला प्रभाव डालते हैं! लवणों की अधिक मात्रा होने पर भूमि उसर हो जाती है!
(5) भूमियों में सूक्ष्म जीवों की उचित क्रियाशीलता के लिए उचित ताप एवं वायु की आवश्यकता होती है, लेकिन भूमि में अधिक पानी होने की वजह से दोनों चीजों का अभाव हो जाता है और सूक्ष्म जीव अपना कार्य नहीं कर पाते हैं!