भारतीय राजनीतिक में कौटिल्य का योगदान एवं महत्व बताइए

भारतीय राजनीतिक में कौटिल्य का योगदान एवं महत्व (bhartiya rajnitik chintan me kautilya ka yogdaan or mahatva bataiye) –

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन में कौटिल्य का योगदान कौटिल्य की रचना ‘अर्थशास्त्र का आकलन करते हुए प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था के तिला विद्वान ए. एस. कर ने लिखा है, राजनीति पर रचित साहित्य में अर्थशास्त्र का वही स्थान है, जो व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि की अष्टाध्यायी का । पाणिनि की भाँति कौटिल्य ने अपने समस्त पूर्वजों को पीछे छोड़ दिया; इसलिये उनकी कृतियों का महत्व समय के साथ कम हो गया। पाणिनि की कृति इतनी उत्तम है कि उसके बाद के व्याकरणविदों में से शायद ही किसी ने उससे आगे जाने का प्रयत्न किया हो। 

लगभग यही स्थिति कौटिल्य के बाद के रचनाकारों की कौटिल्य के संदर्भ में थी।” लगभग इसी प्रकार के विचार डॉ. बेनी प्रसाद ने भी उसका किये हैं। उनके शब्दों में, प्रशासन की योजना के रूप में, अर्थशास्त्र हिन्दू साहित्य में अतुल्य हैं। यह अपने परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण है, अपने नियमों में विस्तृत है और अपने विमर्श में गहराई लिए हुए हैं….. धार्मिक मत से स्वतंत्रता यह प्रदर्शित करती है कि उस काल में उतना धार्मिक प्रभाव नहीं था! 

कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ न केवल प्रशासन अपितु युद्ध, प्रतिरक्षा, अर्थ-व्यवस्था, कानून और अन्य अनेक मामलों पर अद्वितीय पुस्तक है। अनेक विद्वानों का मानना है कि पूरे संसार में कम ही पुस्तकें ‘अर्थशास्त्र जैसी होंगी जो एक साथ इतने विषय पर सूचना देती हो। यही कारण है कि प्राचीन भारत के इतिहास में कौटिल्य को एक महान् राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, कुशल प्रशासक, अर्थशास्त्री, वेदों का धुरंधर विद्वान माना गया है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कौटिल्य पहले भारतीय चिन्तक हैं, जिन्होंने राजतंत्रों के उस युग में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की।

उसने निरंकुश सत्ता के युग में भी लिखा “प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है। उसके कल्याण में ही राजा का कल्याण है। राजा को अपना हित नहीं प्रिय होना चाहिए अपितु अपनी प्रजा का ही हित प्रिय होना चाहिए ।” इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने यह भी लिखा है कि, “यदि राजा के एक ही पुत्र हो और वह भी दुराचारी हो तो उसे सिंहासन पर कभी नहीं बैठाना चाहिए । राजा ऐसे खराब पुत्र की बजाय अपनी लड़की के पुत्र या अन्य किसी संबंधी को सिंहासन पर बैठा सकता है। 

कौटिल्य ने अनेक उदाहरण देते हुए यह प्रतिपादित किया है कि उन्हीं राजाओं का पतन होता है, जो दुराचारी, अत्याचारी, अभिमानी या लोभी हों । इसलिए आचार्य का सुझाव है कि राजा को सदैव इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए । कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था में राजा को सत्तारूढ़ होते समय एक शपथ भी लेनी होती थी कि वह सदैव धर्म एवं प्रजा का पालन करेगा। यदि वह इससे पतित हो जाय तो उसके तथा उसकी संतान के सारे धर्म नष्ट हो जायें। इस प्रकार कौटिल्य ने निरंकुश राजतंत्र के युग में भी राजा को उत्तरदायी बनाने की लोकतांत्रिक अवधारणा प्रस्तुत की।

कौटिल्य का भारतीय राजनीतिक चिन्तन को अद्वितीय योगदान है। उसे प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन का प्रथम राजनीतिक शास्त्री माना जाता है। उसके राजनीतिक चिन्तन में स्थायित्व एवं परिवर्तन, नैतिकता एवं अनैतिकता के व्यवहारों, आध्यात्म तथा सांसारिकता से जुड़ें प्रश्नों की व्याख्या है। 

कौटिल्य की दृष्टि में शासक का परम लक्ष्य राज्य, उसका स्थायित्व एवं उसका विस्तार करना है; और उन उद्देश्यों की प्राप्ति पर हर प्रकार के साधनों से करने की सलाह देता है। इतना होने पर भी वह शासकों को नीति परायणता की सीख देता है, जिससे कि वे अप्रन्यासी न बनें। शासकों के दायित्वों की चर्चा का अध्ययन करने से स्पष्ट होता हैं कि कौटिल्य प्राचीन भारत में लोककल्याणकारी राज्य का प्रतिपादन करते हैं।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आचार्य कौटिल्य का मनन क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इसमें राजनैतिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक विषय समाहित हैं। ‘अर्थशास्त्र’ के विहंगम अवलोकन के पश्चात् कहा जा सकता है कि आचार्य कौटिल्य का ग्रंथ राज्य प्रशासन के साथ ही साथ व्यावहारिक प्रशासन की भी वृहद व्याख्या करने में सक्षम है। वास्तव में प्रशासनिक कार्यों की शैशवावस्था यहीं से उद्भूत होती है।

आचार्य ने अपनी पुस्तक में प्रशासनिक तंत्र की संरचना का विस्तृत वर्णन किया है। यद्यपि आचार्य द्वारा वर्णित प्रशासनिक तंत्र वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था की तरह वृहदता धारित नहीं करता है, तथापि यह सत्य है कि लोकशाही व्यवस्था, विधियाँ, उपविधियाँ, प्रशासकीय न्यायाधिकरण से संदर्भित विचारों को वर्तमान में प्रश्रय उसी महान प्राचीन शासन व्यवस्था की मौलिक देन है। 

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