कौटिल्य का षाड्गुण्य सिद्धांत या नीति

कौटिल्य का षाड्गुण्य सिद्धांत (kautilya ka shadgunya siddhant ya niti) –

कौटिल्य ने परराष्ट्र संबंधों के संदर्भ में पाहगुण्य नीति (Six-fold policy) का प्रतिपादन किया है। ये संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैधि भाव। कौटिल्य का षाड्गुण्य सिद्वांत का विवरण इस प्रकार है –

(1) संधि –

कुछ शर्तों के आधार पर दो राज्यों में परस्पर संबंध स्थापन क्रिया को कौटिल्य ने संधि की संज्ञा दी है। किन परिस्थितियों में राजा को संधि गुण का आश्रय ग्रहण करना चाहिए, इस विषय में कौटिल्य अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं “यदि राजा यह देखता है कि संधि करने पर वह बड़े-बड़े कार्यों को सम्पादित कर के महान कार्यों को हानि पहुँचा सकता है अथवा शत्रु का विश्वास अर्जित करने के उपरांत वह गुप्तचरों अथवा विष-प्रयोग द्वारा शत्रु का नाश कर सकता है अथवा कृत्या प्रदर्शन कर शत्रु के उत्तम मनुष्यों को अपनी कार्यकुशलता से अपनी ओर आकृष्ट कर सकता है अथवा शत्रु से संधि करने पर के मण्डल में भेद उत्पन्न कर सकता है अथवा इस समय सैन्य सहायता देकर शत्रु का उपकार कर सकता है और अब राजा अपने मण्डल से मिलना चाहेगा तब उसे मिलने न दे,

इस प्रकार कौटिल्य पराजित राजा के लिये संधि काल उस अवसर को मानते हैं जिसका प्रयोग वह अपने सबल शत्रु से मेल कर उसको किसी न किसी प्रकार से शक्तिहीन बनाने में करता है और अपने को प्रत्येक प्रकार से सबल बनाने में गुप्त रूप प्रयत्नशील रहता है। वास्तव में कौटिल्य शत्रु राजा को निर्बल बनाने और अपने को प्रत्येक प्रकार से सबल बनाने का साधन संधि को मानते हैं।

(2) विग्रह –

 कौटिल्य के अनुसार दूसरे के अपकार-गुण में रत हो जाना विग्रह कहलाता है। राजा को इस गुण का आश्रय तब लेना चाहिए।कौटिल्य ने उन परिस्थितियों का भी विस्तार से उल्लेख किया हैं जब राजा को विग्रह गुण का आश्रय लेना चाहिए! कौटिल्य का मत है कि यदि विजयाभिलाषी राजा इस परिस्थिति में हो कि उसके राज्य में प्रायः लोग शस्त्र प्रयोग में कुशल और संगठित है तथा पर्वत, वन, नदी और दुर्ग से उसकी राज्य में प्रवेश एक द्वार है। यह द्वारा किये गये आक्रमण का उत्तर देने में समर्थ है और अपने राज्य की सीमा के दृढ दुर्ग में स्थित होकर शशत्रु कार्यों का नाश कर सकता है! 

(3) आसन –

पर कौटिल्य ने अपनी वृद्धि हेतु चुपचाप बैठे रहने को आसन की संज्ञा दी है। कौटिल्य ने आसन के तीन रूप बताये है-स्थान, आसन और उपेक्षण | किसी विषय में चुपचाप बैठे रहना और किसी विषय में उपाय करते रहना स्थान कहलाता है। अपनी वृद्धि की प्राप्ति हेतु चुपचाप बैठे रहना आसन कहलाता है। किसी भी उपाय का अवलम्बन न करना उपेक्षण कहलाता है।

राजा को आसन गुण का आश्रय कब लेना चाहिए, इस विषय में कौटिल्य का मत हैं कि “यदि राजा समझता है कि उसका शत्रु इतना समर्थ नहीं है कि वह उसके कामों को हानि पहुँचा सके और न वही शत्रु कार्यों को बिगाड़ सकता है, यद्यपि शत्रु व्यसनग्रस्त है, परन्तु कलह का आश्रय लेने में कुत्ते और शंकर के आक्रमण के तुल्य कोई फल नहीं निकलेगा और अपना काम  करता रहा तो वृद्धि को प्राप्त हो जाएगा तब ऐसी परिस्थिति में राजा को चुपचाप बैठे हुए आसन गुण का अवलंबन करना चाहिए! 

4) यान –

एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर आक्रमण को कौटिल्य यान कहते है। कौटिल्य का मत है कि जब विजयाभिलाषी राजा यह महसूस करे कि शत्रु के कार्यों का दमन उस पर आक्रमण करने से ही हो सकता है और उसने स्वयं अपने राज्य की सुरक्षा का समुचित प्रबंध कर लिया है, तो ऐसी स्थिति में उसे यान के गुण का आश्रय लेना चाहिए! 

(5) संश्रय – 

अपने से बलवान राजा अथवा शत्रु के समक्ष आत्म-समर्पण कर देने को कौटिल्य ने संश्रय गुण बताया है। कौटिल्य का मत है कि जब राजा इस परिस्थिति में अपने को समझ ले कि वह शत्रु के कार्यों में हानि नहीं पहुँचा सकता और न अपने कार्यों की ही रक्षा करने में समर्थ है तो उसको किसी दूसरे बलवान राजा का आश्रय लेना चाहिए। इसके उपरांत उसको अपना कार्य साधते हुए इस क्षणिक क्षय से स्थान की प्राप्ति करनी चाहिए और स्थान के उपरांत वृद्धि को प्राप्त करना चाहिए। 

(6) द्वैधी भाव – 

कौटिल्य के अनुसार जब कोई राजा किसी अन्य राजा से संधि और किसी दूसरे अन्य राजा से विग्रह का भाव ग्रहण करता है, तो उसे द्वैधी भाव कहते हैं। यदि राजा समझता है कि एक राजा से संधि और दूसरे से विग्रह करने में वह अपने कार्यों को साध संकेगा तथा शत्रु की योजनाओं को नष्ट कर सकेगा तो उस राजा को द्वैधी भाव गुण का आश्रय लेना चाहिए। कौटिल्य का मत है कि विजयाभिलाषी अथवा शक्ति संचय के आकांक्षी राजा को उपर्युक्त 6 सूत्रीय नीति का अनुसरण करना चाहिए! 

कौटिल्य का मत है कि राजा को स्थितियों के आवश्यकतानुसार उपर्युक्त में से किसी एक का प्रयोग करना चाहिए! सर्वश्रेष्ठ नीति यह है कि राजा को शक्तिशाली शत्रु को मित्र बनाने का प्रयास करना चाहिये और कमजोर शत्रु को विजित कर लेना चाहिये! कोई भी नीति अपनाते समय उसे अपने राज्य की सुरक्षा, क्षेत्र के विस्तार और अपने प्रजाजन के कल्याण पर सर्वोच्च ध्यान देना चाहिए!

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