उग्रवादी आंदोलन क्या था (ugravadi andolan kya tha)-
1905 ई. के पश्चात कांग्रेस में कुछ उग्रवादी/गरमपंथी नेताओं का उद्भव हुआ! उग्रवादी आंदोलन (ugravadi andolan) का समय 1906 से 1918 के मध्य माना जाता हैं! प्रारंभिक उग्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष आदि थे!
उग्रवादी आंदोलन के उदय के कारण (ugravadi andolan ke uday ke karan) –
(1) उदारवादी आंदोलन की असफलता –
उदारवादी नेताओं की आवेदन-निवेदन नीति की असफलता ने देश की जनता तथा खुद कांग्रेस के अंदर असंतोष पैदा किया! ब्रिटिश सरकार द्वारा उदारवादियों की मांगों के प्रति अपनाई जाने वाली उपेक्षापूर्ण नीति ने कांग्रेस के युवाओं का अंदर तक आंदोलित कर दिया! इन युवा नेताओं ने उदारवादी तरीके को राजनीति में भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी तथा ब्रिटिश सरकार से अपनी मांगे मनवाने हेतु कठोर तरीके अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया!
(2) भारतीयों की चेतना में वृद्धि –
भारतीयों के बीच ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चेतना में वृद्धि हो रही थी! ब्रिटिश शासन के आर्थिक दुष्परिणाम 1896 तथा 1900 के बीच अकालों में और भी स्पष्ट हो गए!
(3) भारतीयों के आत्मसम्मान वृद्धि –
भारतीयों में स्वशासन तथा अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करने हेतु उनमें आत्मसम्मान तथा आत्मविश्वास की भावना का उदय हुआ! इसने उग्रवादी विचारों को जन्म दिया! इसी कारण तिलक ने घोषणा की कि स्वराज्य प्रत्येक भारती का जन्मसिद्ध अधिकार है, कोई उपहार नहीं जिसे अंग्रेजी द्वारा बताई गई सभी जांचो में खरा उतरने के बाद भारतीयों को दिया जाए!
(4) पाश्चात्य शिक्षा तथा विचारों का प्रभाव –
पाश्चात्य शिक्षा तथा विचारों एवं बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ने भी उग्रवाद की भावनाओं को जन्म दिया! पाश्चात्य शिक्षा में विकास के कारण भारतीय अधिक संख्या में शिक्षित हुए तथा उन पर प्रजातंत्र, राष्ट्रवाद तथा उग्रवाद जैसे पाश्चात्य विचारों का प्रभाव बढ़ा! शिक्षित भारतीयों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ा तथा उन्होंने महसूस किया कि इस समस्या का हल ब्रिटिश शासन में संभव नहीं है!
(5) अकाल एवं प्लेक का प्रकोप –
1894 ई.-1898 ई. के दौरान प्लेक को दूर करने हेतु सरकारी अधिकारियों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया! प्रतिक्रिया स्वरूप दामोदर हरी चापेकर ने कमिश्नर रैंड तथा उसके सहायक लेफ्टिनेंट एम्हस्ट (आयस्टर) की हत्या कर दी! दामोदर हरी चापेकर को फांसी दे दी गई तथा उसे भड़काने के आरोप में बाल गंगाधर तिलक को 18 माह की सजा दी गई! इससे भारतीय जनता में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न हुआ तथा उदारवादी नीति के सिद्धांत को तोडा जाने लगा!
(6) कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति –
कर्जन ने अनेक जनविरोधी कदम उठाए, जिससे भारतीय लोगों की भावनाएं आहत हुई! उदाहरणार्थ – 1899 ई. में कोलकाता नगर निगम में भारतीय सदस्यों की संख्या घटा दी गई, 1903 ई. अमें काल के पश्चात भी दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया तथा एडवर्ड सप्तम को भारत का सम्राट घोषित किया गया,
1986 में ‘इंडियन ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट’ से प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया 1904 ई. में ही ‘इंडियन यूनिवर्सिटी एक्ट’ से कोलकाता विश्वविद्यालय पर सरकारी नियंत्रण स्थापित हो गया, 1905 ई. में बंगाल को विभाजित कर दिया गया! इन समस्त कार्यों के विरोध स्वरूप उग्रराष्ट्रवाद का उदभव हुआ
उग्रवादियों की कार्य पद्धति (ugravadiyon ki kary padhati) –
उग्रवादियों ने प्रार्थना प्रतिवेदन तथा संस्मरण की राजनीति को राजनीतिक व्यक्ति की संज्ञा दी! उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध जैसे तरीकों को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु माध्यम बनाया! वे राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा एक नए राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे!
उग्रवादियों की विचारधारा (ugravadiyon ki vichardhara) –
उग्रवादी विदेशी शासन से घृणा तथा तीव्र एवं उग्र परिवर्तन में विश्वास करते थे! फलतः उन्होंने विरोध हेतु हिंसात्मक एवं आत्मबलिदान जैसे तरीकों को अपनाया! उन्हें जनता की क्षमता पर पूर्ण विश्वास था तथा वे मानते थे कि जनता की सीधी कार्रवाई से ही परिवर्तन संभव है!
उग्रवादी आंदोलन के महत्व (ugravadi andolan ka mahatva) –
(1) उग्रवादियों ने विरोध हेतु बहिष्कार, स्वदेशी, निष्क्रिय प्रतिरोध, जुलूस, हड़ताल, राष्ट्रीय शिक्षा, ग्रामीण उत्थान, स्वावलंबन, सर्जनात्मक कार्य जैसे तरीकों को अपनाया कर गांधीवादी कार्यक्रम का आधार निर्मित किया!
(2) उग्रवादियों ने ही सर्वप्रथम स्वराज्य की मांग की है कि 1929 ई. तक कांग्रेस की यही प्रमुख मांग बनी रही!
(3) उग्रवादियों ने कांग्रेस के सामाजिक आधार का विस्तार किया! उनके प्रभाव से विद्यार्थी, युवा तथा महिलाएं भी राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी!
उग्रवादियों की आलोचना या असफलता (ugravadiyon ki aalochana) –
(1) उग्रवादी नेता भी मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे! अत: ववे भी कोई वास्तविक जन आंदोलन लाने में असफल रहे!
(2) उग्रवादियों एवं उदारवादी का मध्य वैचारिक संघर्ष से राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ! 1907 ई. में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन हो गया, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन में रुकावट आई!
(3) उन्होंने शिवाजी एवं गणेश उत्सव मनाना प्रारंभ किया जिसका उद्देश्य धार्मिक कम राजनीतिक अधिक था, परंतु उसने भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया!
उग्रवादी आंदोलन का मूल्यांकन (ugravadi andolan ka mulyankan) –
कुछ आलोचकों का विचार है कि उग्रवादियों को अधिक सफलता नहीं मिली! उन्होंने मुख्यतः बंगाल विभाजन का विरोध किया किंतु वे बंगाल विभाजन को नहीं टाल सके! साथ ही उनके द्वारा अपनाए गए धार्मिक तरीकों से संप्रदायवाद को बढ़ावा मिला! अत: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में इनका कोई विशेष महत्व नहीं हैं!
किंतु गहराई से पर्यवेक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि उग्रवादियों ने ही कांग्रेस को युवा वर्ग के साथ जोड़ा, भविष्य के गांधीवादी आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को द्वितीय चरण में नेतृत्व प्रदान किया! इस रूप में उग्रवादी आंदोलन का भारत की स्वतंत्रता में विशेष महत्व है!
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